पश्चिमी यूपी के जाटलैंड कहे जाने वाले मुजफ्फरनगर की महापंचायत से किसानों ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के चुनाव में बीजेपी को वोट से चोट देने का खुला ऐलान कर दिया है. विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुई किसान महापंचायत में संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने भले ही बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया हो, लेकिन सूबे में किस पार्टी को समर्थन करेंगे इस बात को सार्वजनिक नहीं किया गया. पिछले दो दशक में जब-जब मुजफ्फरनगर में किसानों की महापंचायत जिस सरकार के खिलाफ हुई, उसे सत्ते से हटना विदा होना पड़ा है. ऐसे में सवाल उठता है कि किसान आंदोलन का 2022 के यूपी चुनाव में किसे सियासी फायदा मिलेगा?
मुजफ्फरनगर के राजकीय इंटर कॉलेज के मैदान में रविवार को आयोजित महापंचायत में किसानों ने तय किया कि राज्य के हर जिले में संयुक्त मोर्चा का गठन कर आंदोलन को धार दिया जाएगा. किसानों का उमड़ा सैलाब देख किसान नेताओं ने कहा कि यह मोदी सरकार के लिए सिर्फ वार्निंग सिग्नल है या तो रास्ते पर आ जाओ, नहीं तो किसान 2024 तक आंदोलन करने को भी तैयार हैं.
यहां मुजफ्फरनगर दंगे में टूटे सामाजिक ताना-बाना को आठ साल बाद किसान महापंचायत के जरिए पिरोने की कवायद होती दिखी. किसान नेता राकेश टिकैट ने मंच से हर-हर महादेव और अल्लाह-हू अकबर के नारे लगाकर धार्मिक सद्भाव का संदेश देने की कोशिश करते नजर आए. साथ ही उन्होंने कहा कि किसानों की मांगें नहीं मानी तो बंगाल की तर्ज पर यूपी में योगी सरकार को उखाड़ फेंकेंगे. टिकैत ने कहा कि पूरे यूपी में आने वाले दिनों में ऐसी 8-10 महापंचायतें की जाएंगी.
किसान महापंचायत में कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी की गारंटी, गन्ना मूल्य बढ़ोत्तरी की मांग उठाई. रेलवे, एयरपोर्ट, बैंक व बीमा समेत सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर कड़ा विरोध जताया. कहा कि किसानों की मांगें नहीं मानी तो बंगाल की तर्ज पर यूपी में योगी सरकार को उखाड़ फेंकेंगे.
किसानों के तेवर देखकर साफ है कि कृषि कानूनों को शुरू हुआ आंदोलन अब सियासी रंग में बदलता जा रहा है. किसानों यह लड़ाई का लिटमस टेस्ट 2022 में यूपी के विधानसभा चुनाव में होगा. यही वजह है कि अब सूबे के प्रत्येक जिले में संयुक्त मोर्चा का गठन करने के लिए आगामी 10 और 11 सितंबर को लखनऊ में बैठक होगी, जिसमें विभिन्न किसान संगठन के तमाम पदाधिकारी शामिल होंगे.
भाकियू के वरिष्ठ नेता धर्मेंद्र मलिक बताते हैं, हम महापंचायत तक ही सीमित नहीं रहेंगे. महापंचायत के बाद अब मंडल स्तरों पर 18 बड़ी बैठकें होंगी. इसके बाद जिला और फिर तहसील स्तरों पर बैठकों का आयोजन होगा. धर्मेंद्र मलिक ने कहा कि यूपी में चुनाव आने तक हम इसी तरह बैठकों का आयोजन करेंगे और केंद्र-प्रदेश सरकार की खराब नीतियों को बताएंगे. कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों को एकजुट करेंगे. हालांकि, वो बीजेपी को 2022 में सबक सिखाने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन किसे समर्थन करेंगे यह बात नहीं कह रहे हैं.
बता दें कि पश्चिमी यूपी में हमेशा ही जाट-मुस्लिम समीकरण रहा है, जिसका फायदा बसपा, सपा और राष्ट्रीय लोकदल को मिलता रहा, लेकिन 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे ने यह समीकरण बिगाड़ दिए और इन तीनों पार्टियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. आरएलडी का तो खाता भी नहीं खुल पा रहा है जबकि नए समीकरणों का बीजेपी पूरा फायदा पिछले तीन चुनाव से मिल रहा. किसान महापंचायत के सहारे एक बार फिर विपक्ष को जाट-मुस्लिम समीकरण के दोबारा से मजबूत होने और उन्हें सियासी फायदा की उम्मीद नजर आ रही है.
हालांकि, संयुक्त किसान मोर्चा ने मिशन यूपी की पहली महापंचायत से बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. विपक्षी दल मैदान के बाहर किसानों की सेवा में जुटे रहे, लेकिन उन्हें मंच पर जगह नहीं मिली. आरएलडी की तरफ से खुले तौर पर महापंचायत का समर्थन किया गया था. यही वजह थी कि आरएलडी के तमाम नेताओं ने अपने होर्डिंग और बैनर महापंचायत स्थल के मार्गों पर लगवा रखे थे. इसके अलावा स्थानीय स्तर पर काफी समर्थक महापंचायत शामिल रहे.
किसान आंदोलन से राष्ट्रीय लोकदल को पश्चिमी यूपी में संजीवनी की आस है. यही वजह थी कि आरएलडी के अध्यक्ष जयंत चौधरी ने तो ट्वीट कर कहा था कि वे किसानों पर फूलों की बारिश करना चाहते थे, लेकिन ज़िला प्रशासन ने इसकी इजाज़त नहीं दी. जयंत चौधरी ने कहा था कि बहुत माला पहनी हैं, मुझे जनता ने बहुत प्यार, सम्मान दिया है. अन्नदाताओं पर पुष्प बरसाकर उनका नमन और स्वागत करना चाहता था.
दरअसल, मुजफ्फरनगर में जब-जब किसानों ने महापंचायत के जरिए हुंकार भरी है तो सत्ता परिवर्तन होकर रहा है. 2003 में जीआईसी के मैदान पर किसान महापंचायत बसपा की मायावती सरकार के खिलाफ हुई थी. चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत पर कलेक्ट्रेट में हुए लाठीचार्ज के विरोध में किसान जुटे थे और इसके बाद हुए चुनाव में मायावती सत्ता से बाहर हो गई थीं.इसके बाद 2008 को टिकैत की गिरफ्तारी के विरोध में बसपा सरकार के खिलाफ बड़ी पंचायत हुई थी और 2012 में बसपा सत्ता से बाहर हो गई.
प्रदेश में सपा की सरकार आई और मुजफ्फरनगर जिले में कवाल कांड के बाद भाकियू नेता राकेश टिकैत ने सात सितंबर 2013 को नंगला मंदौड में पंचायत बुलाई. इस महापंचायत के बाद जिले में दंगे हुए और जिसका खामियाजा सपा को उठाना पड़ा. 2017 में सत्ता परिवर्तन हो गया और प्रदेश में भाजपा की सरकार आ गई. अब 2022 में चुनाव होने हैं और एक बार फिर यह महापंचायत हुई है. किसान संगठन भाजपा की योगी सरकार को उखाड़ने की बात भी कर रहे हैं, लेकिन किसे समर्थन करेंगे यह बात नहीं बता रहे हैं. कृषि कानून के विरोध में खड़े हुए 9 महीने में किसान आंदोलन का सबसे बड़ा फायदा पश्चिम यूपी में आरएलडी को मिला है. पश्चिम यूपी में पिछले दिनों हुए पंचायत चुनाव में आरएलडी-सपा गठबंधन ने बेहतर प्रदर्शन किया था. पश्चिम क्षेत्र में 445 पंचायत सदस्य हैं, जिनमें से बीजेपी 99 सदस्य ही जीता सकी थी जबकि रालोद दो सौ जिला पंचायत सदस्य जीतने का दावा किया था. बागवत में अपना जिला पंचायत अध्यक्ष भी आरएलडी बनाने में कामयाब रही थी.
आरएलडी छोड़कर गए नेताओं ने वापसी कर रहे है तो दूसरे दल के नेताओं ने भी पार्टी की सदस्यता हासिल किए हैं. 2022 के चुनाव में आरएलडी और सपा का गठबंधन है. जयंत चौधरी और टिकैत परिवार के बीच रिश्ते भी काफी बेहतर है. ऐसे में किसानों का बीजेपी के विरोधा सबसे बड़ा फायदा फिलहाल आरएलडी को होने की संभावना है.
सपा एमएलसी सुनील साजन का कहना है कि जो किसान देश की रीढ़ की हड्डी हैं. भाजपा सरकार ने उसे ही तोड़ने का काम किया है. किसान जो भी कदम उठाएंगे. उनके साथ सपा कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहेगी. वहीं, किसान भाजपा सरकार के खिलाफ लामबंद है तो ऐसे में इस जन आंदोलन का फायदा लेने में कांग्रेस भी पीछे नहीं है. कांग्रेस का कहना है कि अहंकारी मोदी सरकार ने अपने तीन काले कानून किसानों पर थोप दिए हैं, जिससे किसानों की आने वाली पीढ़ियों का भविष्य खतरे में है.