बिहार के मुख्यमंत्री और विधानसभा चुनावों में एनडीए के खेवनहार नीतीश कुमार अपने पिछले 15 सालों के राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर में हैं। वह दोतरफा विश्वास का संकट झेल रहे हैं। बार-बार पाला बदलने के कारण वो नीतीश कुमार जो एक समय भरोसे का दूसरा नाम माने जाते थे, इस बार जनता के हर हिस्से में उन्हें लेकर शंका है कि चुनाव के बाद वह किसी भी करवट बैठ सकते हैं। नीतीश कुमार के काम और सुशासन के तमाम दावों और वादों पर यह विश्वास का संकट भारी पड़ता नजर आ रहा है। विश्वास का यह संकट भाजपा के सामने भी है क्योंकि पांच साल पहले के चुनावों में नीतीश कुमार को जमकर कोसने वाली भाजपा और उसके नेता अब उनके लिए ही वोट मांग रहे हैं। ऐसे में बिहार के मतदाताओं का सवाल है कि किसे सही मानें… पांच साल पहले नीतीश कुमार और भाजपा नेताओं ने एक-दूसरे के बारे में जो कहा था उसे या अब जो कह रहे हैं। दोनों के एक-दूसरे के बारे में कहे गए पुराने बयान लोगों के बीच अब भी चर्चा में हैं।
नीतीश कुमार आज राजनीति के जिस मुकाम पर हैं, वो उन्हें वर्षों की मेहनत और संघर्ष से मिला है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 1977 में वह पहली बार जनता पार्टी के टिकट पर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़े थे और जनता लहर के बावजूद चुनाव हार गए थे। लेकिन इसके बावजूद नीतीश कुमार ने हार नहीं मानी और घर नहीं बैठ गए। वह बिहार की राजनीति में लगातार सक्रिय रहे और 1985 के विधानसभा चुनाव में हरनौत विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। इसके बाद1989 में लोकसभा चुनाव जीतकर वह विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री बने। जनता दल में और खासकर जब बिहार में लालू प्रसाद यादव की तूती बोल रही थी और दिल्ली से लेकर पटना तक कोई उन्हें चुनौती नहीं दे सकता था, तब नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती दी और जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बनाई।
1995 के विधानसभा चुनावों में जॉर्ज-नीतीश की समता पार्टी ने बिहार में लालू प्रसाद यादव और जनता दल का विकल्प बनने की कोशिश की। वह चुनाव उन्होंने बिना भाजपा के सहयोग के लड़ा, लेकिन समता पार्टी बुरी तरह हारी और उसके महज छह विधायक ही जीत सके। लेकिन नीतीश न रुके न थके। उन्होंने जनता दल और कांग्रेस से निराश होकर भाजपा से हाथ मिलाया और बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव को चुनौती देनी शुरू की। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वह जॉर्ज के साथ केंद्रीय मंत्री बने और 2000 के बिहार विधानसभा चुनावों में पहली बार उन्होंने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन विधानसभा में वह विश्वास मत का सामना नहीं कर सके और एक सप्ताह में ही इस्तीफा देकर वापस केंद्र में मंत्री बने। लेकिन नीतीश कुमार लगातार बिहार की राजनीति में राजद और लालू का विकल्प बनने की सियासी कवायद में जुटे रहे और उन्हें पहली सबसे बड़ी सफलता 2005 में मिली जब उनके नेतृत्व में जद(यू) भाजपा गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला। 2005 में बहुमत की सरकार के मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने बिहार की सूरत बदलनी शुरू की और उन्होंने राजद के 15 साल के राज में बुरी तरह से बर्बाद हुए बिहार को पटरी पर लाने के लिए वह सब किया जिसका उन्होंने चुनावों में वादा किया था। सबसे पहले कानून व्यवस्था को सुधारने के लिए उनकी सरकार ने बिहार के अपराधियों, माफिया सरगनाओं और उनके राजनीतिक सरपरस्तों पर नकेल कसी। इसके नतीजे भी सामने आने लगे और जिस पटना में रात आठ बजे के बाद लोग घरों निकलने में डरते थे, उस पटना सहित पूरे बिहार में पूरी रात लोग निर्भय होकर बाहर निकलने लगे। एक शहर से दूसरे शहर जाने लगे। इसी दौर में नीतीश ने अपना जनाधार तैयार करने के लिए कई बड़े फैसले लिए।
पंचायतों और निकायों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, पिछड़ों में अति पिछड़ों के लिए कर्पूरी ठाकुर फॉर्मूले के आधार पर आरक्षित पदों के भीतर आरक्षण की व्यवस्था करके नीतीश कुमार ने महिलाओं और अति पिछड़ों में अपना नया जनाधार तैयार किया। भाजपा के सहयोग से सरकार चलाने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता के मोर्चे पर नीतीश कुमार ने अपने को भाजपा के एजेंडे न सिर्फ दूर रखा बल्कि राज्य के मुसलमानों में यह भरोसा पैदा किया उनके राज में उन्हें कोई डर नहीं है। मुसलमानों में पिछड़ी जातियों को मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर पसमांदा मुसलमान श्रेणी बनाकर उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण देकर नीतीश ने राजद के मुस्लिम-यादव समीकरण में खासी सेंधमारी कर ली। नीतीश कुमार के इन्हीं तमाम फैसलों ने उन्हें 2010 के चुनावों तक बेहद लोकप्रिय बना दिया और इन चुनावों में जद(यू) भाजपा गठबंधन को दो तिहाई बहुमत मिला। लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल की महज 22 सीटें आईं और उसे मुख्य विपक्षी दल बनने लायक संख्या भी नहीं मिली। कांग्रेस की हालत तो और खस्ता हो गई।
अपने दूसरे पूर्ण कार्यकाल में नीतीश कुमार ने बिहार के मूलभूत ढांचे के विकास पर ध्यान देना शुरू किया। बिहार की सड़कों का उन्होंने कायाकल्प किया और जिन टूटी-फूटी सड़कों पर थोड़ी दूरी भी तय करने में घंटों लगते थे, उन्हें चौड़ा करके इतना अच्छा बनाया गया कि लंबी-लंबी दूरियों भी कुछ घंटों में तय होने लगीं। बिजली आपूर्ति को लेकर बिहार में कहावत थी कि यहां बिजली जाने का नहीं बल्कि कब आती है लोग इसका इंतजार करते हैं। बिहार की बिजली व्यवस्था को सुधारकर नीतीश कुमार ने ग्रामीण क्षेत्रों में 14 से 15 घंटे और शहरी क्षेत्रों में 22 से 24 घंटे की आपूर्ति सुनिश्चित की। अपने इन तमान कामों की वजह से नीतीश कुमार की ख्याति ‘सुशासन बाबू’ वाली हो गई और लोग उन्हें भरोसे का दूसरा नाम कहने लगे।
इसी दौर में भाजपा में नरेंद्र मोदी का कद बढ़ रहा था और पार्टी कार्यकर्ता उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे थे। लेकिन नीतीश कुमार को मोदी का बढ़ता कद मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने पहले भाजपा के साथ रहते हुए मोदी से अपनी दूरी बनानी शुरू कर दी और आखिरकार जून 2013 में उन्होंने बाकायदा भाजपा से तब नाता तोड़ लिया जब भाजपा ने तय कर दिया कि नरेंद्र मोदी ही 2014 के लोकसभा चुनावों में उसके नेता होंगे। नीतीश कुमार को यह गलतफहमी हो गई कि उनका कद बिहार में इतना बड़ा हो गया है कि वह 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा और राजद-कांग्रेस दोनों को पटखनी देकर बिहार की 40 लोकसभा सीटों में कम से कम 30 सीटें जीतकर केंद्र की राजनीति में अपनी भूमिका निभाएंगे।
लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में जनता दल(यू) को केवल दो सीटों पर ही जीत मिल पाई। इन नतीजों ने नीतीश कुमार को बेहद निराश किया और उन्होंने सियासी दांव चलते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी जीतनराम मांझी को कुर्सी सौंप दी। नीतीश के इस दांव ने उन्हें न सिर्फ उच्च नैतिक धरातल पर स्थापित किया बल्कि एक महादलित को मुख्यमंत्री बनाकर उन्होंने दलितों में भी एक संदेश दिया। इसके साथ ही नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के साथ अपना संवाद शुरू कर दिया जिसकी परिणति 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद जद(यू) कांग्रेस के महागठबंधन के रूप में सामने आई।
2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव को बड़ा भाई तो लालू ने उन्हें छोटा भाई कहा और चुनाव से पहले नीतीश कुमार महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हो गए। क्योंकि चुनाव से कुछ महीने पहले ही उन्होंने जीतनराम मांझी का इस्तीफा करवाकर खुद मुख्यमंत्री पद संभाल लिया था और नाराज मांझी ने अपना अलग दल बनाकर भाजपा का दामन थाम लिया था। जिस दौर में देश में नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही थी और भाजपा महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में जबर्दस्त चुनावी कामयाबी पाकर सरकार बना चुकी थी, उस दौर में नीतीश और लालू ने मिलकर मोदी और भाजपा को चुनौती दी। तमाम प्रचारतंत्र और सर्वेक्षणों को ध्वस्त करते हुए महागठबंधन ने जबर्दस्त सफलता हासिल की और 178 विधायकों के साथ नीतीश कुमार फिर मुख्यमंत्री बने, जबकि राजद ने जद(यू) से ज्यादा सीटें जीती थीं, फिर भी लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस ने अपना चुनावी वादा निभाया। बदले में नीतीश ने लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव को अपना उपमुख्यमंत्री बनाया।
इस चुनाव ने बिहार में लालू प्रसाद यादव नीतीश कुमार और कांग्रेस तीनों को ही संजीवनी दे दी। एकबारगी लगा कि नीतीश कुमार ही अब मोदी विरोधी राजनीति की धुरी बनेंगे और 2019 में साझा विपक्ष के नेता के रूप में नरेंद्र मोदी की सत्ता को चुनौती देंगे। चारा घोटाले में दोषी सिद्ध हो चुके लालू प्रसाद यादव भी अपने बेटे तेजस्वी को बिहार में निष्कंटक रास्ता देने के लिए नीतीश को केंद्र की राजनीति में समर्थन देने के लिए राजी थे। लेकिन जून-जुलाई 2017 में बेहद सुनियोजित तरीके से लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के मामले खुलने शुरू हो गए और नीतीश कुमार ने भाजपा से अपनी गुप्त खिचड़ी पकाई और महागठबंधन से नाता तोड़कर भाजपा के समर्थन से फिर मुख्यमंत्री बन गए। इसके बाद कभी नरेंद्र मोदी की चुनौती देने का सपना संजोने वाले नीतीश मोदी के सिपहसालार बन गए और 2019 के लोकसभा चुनावों में वह बिहार में एनडीए के सबसे बड़े खेवनहार साबित हुए।
सामाजिक समीकरण और वोटों के गणित को अगर सिर्फ आंकड़ों में देखा जाए तो लोकसभा चुनावों में एनडीए का वोट प्रतिशत राजद-कांग्रेस महागठबंधन से काफी आगे है और अगर उसी तरह मतदान हो तो एनडीए की जबर्दस्त जीत में कोई शक नहीं है। लेकिन लोकसभा चुनावों से अब तक बिहार की राजनीतिक गंगा में काफी पानी बह चुका है। नीतीश राज के दौरान ही पहले मुजफ्फरपुर बालिका संरक्षण गृह कांड, सृजन घोटाले, चमकी बुखार और बेलगाम अपराधों ने सरकार की छवि खराब की तो कोरोना और लॉकडाउन ने रही सही कसर पूरी कर दी। बिहार की खराब आर्थिक हालत और बेरोजगारी की बढ़ती दर और लॉकडाउन के दौरान देश भर से मीलों पैदल चलकर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों की त्रासदी ने नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार की एनडीए सरकार को बेहद अलोकप्रिय कर दिया।
रही सही कसर चिराग पासवान के दांव ने पूरी कर दी और तेजस्वी यादव ने लगातार बेरोजगारी को एक बड़ा मुद्दा बनाकर बिहार के युवा मतदाताओं में सरकार के प्रति गुस्सा भर दिया है,जिसका साफ संकेत उनकी सभाओं में उमड़ने वाले युवाओं की भीड़ से मिल रहा है। इसके बावजूद तेजस्वी और चिराग के मुकाबले नीतीश कुमार सबसे ज्यादा परिपक्व अनुभवी और जिम्मेदार नेता माने जाते हैं। फिर नरेंद्र मोदी का साथ मिलने से उनकी ताकत और बढ़ जाती है। लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ी समस्या है नीतीश और नरेंद्र मोदी दोनों की साख दांव पर है या यूं कहें कि दोनों के सामने विश्वास का संकट है। नीतीश कुमार पर न तो भाजपा के मतदाता भरोसा कर पा रहे हैं कि चुनाव के बाद पता नहीं कब उनकी धर्मनिरपेक्षता जग जाए और वह पलटी मार जाएं, तो दूसरी तरफ महागठबंधन के वो मतदाता जिन्होंने 2015 में नीतीश पर भरोसा करके उनके उम्मीदवारों को वोट दिया था, नीतीश के पलट जाने के बाद वह ठगे महसूस कर रहे थे, अब पूरी तरह राजद कांग्रेस वाम दलों के महागठबंधन के साथ गोलबंद हैं। यहां तक जिन पसमांदा मुसलमानों को नीतीश ने अलग से आरक्षण दिया था, वह भी इस चुनाव में उनसे छिटके नजर आ रहे हैं। पसमांदा मुसलमानों के नेता पूर्व सांसद अली अनवर पहले ही नीतीश से नाता तोड़ चुके हैं।
जहां तक नरेंद्र मोदी की बात है तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार की जनता ने उन पर पूरा भरोसा किया और भाजपा की झोली भर दी थी। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और तमाम भाजपा नेता जिस तरह से नीतीश कुमार के डीएनए से लेकर उनके राज के घोटालों की फेहरिस्त गिना रहे थे, और नीतीश जिस तरह लालू यादव के साथ मिलकर मोदी और भाजपा पर हमले कर रहे थे, अब पांच साल बाद उन्हीं नीतीश का मोदी और भाजपा नेताओं द्वारा गुणगान आम जनता को हजम नहीं हो रहा है।