एक राष्ट्र-एक चुनाव :तभी हो सकेंगे पूरे देश में एक साथ चुनाव जब संवैधानिक ढांचे में करना होगा बड़ा बदलाव

एक राष्ट्र -एक चुनाव : पढ़ें आदर्श कुमार की रिपोर्ट 

पूरे देश में हर पांच साल में एक ही बार में लोकसभा और तमाम विधानसभाओं के चुनाव करा लेने का विचार काफी समय से राजनीतिक हलके में है. यह विषय बौद्धिक बहसों में रहा है . ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार राजनीतिक शिगूफा ही बनता दिखाई दे रहा है।

पूरे देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के मामले को लेकर गठित लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। कमीशन ने माना है कि मौजूदा संवैधानिक ढांचे में पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं है और इसके लिए मौजूदा ढांचे में बदलाव करने की जरूरत पड़ेगी। हालांकि आयोग ने माना है कि अगर पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया शुरू होती है तो इससे देश की जनता के धन की भारी बचत होगी। सरकारें हमेशा चुनाव की उलझनों से मुक्त होकर जनता के विकास के कार्य कर सकेंगी।

रिटायर्ड जस्टिस बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता में गठित लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पहले दौर में पूरे देश की सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना बिल्कुल भी संभव नहीं है। आयोग ने इसके लिए दो फेज में चुनाव कराने की संस्तुति की है। पहले दौर में 2019 के आम चुनाव के साथ बारह राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनाव कराने की सलाह दी गई है। इनमें पांच राज्य आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और तेलंगाना पहले ही अपना कार्यकाल लोकसभा के लगभग साथ-साथ खत्म करेंगे, इसलिए इनका चुनाव आम चुनाव के साथ कराए जाने में कोई परेशानी नहीं है।

इसके अलावा हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली के राज्यों के चुनाव भी 2019 के आम चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं। लेकिन इन राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराने के लिए राजनीतिक सहमति की जरुरत होगी क्योंकि इन राज्यों का चुनाव सामान्य तरीके से लोकसभा के लगभग एक साल के बाद होने चाहिए। ऐसे में कौन सरकारें अपने कार्यकाल को कम करने पर सहमत होती हैं, यह अपने आप में बड़ा सवाल होगा।

असली परेशानी अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली दिल्ली में हो सकती है जहां केंद्र और केजरीवाल सरकार के साथ तनाव बना हुआ है। लेकिन बाकी तीन जगहों हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा की ही सरकारें हैं, इसलिए इन राज्यों की विधानसभाओं को भंग कर चुनाव कराने में कोई परेशानी नहीं होने वाली है।

वहीं छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों के चुनाव जनवरी 2019 में होने हैं। मिजोरम का चुनाव इसी साल के अंत तक हो जाना चाहिए। लॉ कमीशन के मुताबिक अगर इन राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल में कुछ महीनों की वृद्धि कर दी जाती है तो इनका चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराने में कोई अड़चन नहीं होने वाली है। हालांकि इसके लिए संविधान की धारा 172 में संशोधन करना पड़ेगा।

अगर इन राज्यों का चुनाव लोकसभा के साथ होना तय भी हो जाता है तो भी देश के बाकी 16 राज्यों के चुनाव को लॉ कमीशन ने इस बार लोकसभा के साथ कराने को सही नहीं माना है। क्योंकि ऐसा करने से कई विधानसभाओं को सिर्फ एक से दो साल की समयावधि में ही भंग करना पड़ेगा जो किसी भी तरह उचित नहीं माना जा सकता।

लॉ कमीशन ने संस्तुति की है कि इससे बचने के लिए पहले दौर में साल 2019 के आम चुनाव के साथ तेरह राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव कराए जा सकते हैं। इसके बाद बाकी 16 राज्यों के चुनाव पहली बार साल 2021 में कराया जा सकता है। इसके बाद 2024 के आम चुनाव के समय, जब 2019 में गठित विधानसभाएं अपना लगभग आधा कार्यकाल पूरा कर चुकी होंगी, उनका चुनाव भी 2024 में आम चुनाव के साथ करवाया जा सकता है।

विधि आयोग का कहना है कि सरकार भले ही लोकसभा-विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए, लेकिन उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि लोकतंत्र में निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव की परिभाषा दूषित न हो। हर लिहाज से इस अवधारणा को बनाए रखना होगा। वोट देना और चुनाव लड़ना, ये संवैधानिक अधिकार हैं, इन्हें बनाए रखना होगा। अगर यह सब हो पाता है तो साथ-साथ चुनाव कराने में कोई बुराई नहीं है।

सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि संघात्मक ढांचा पहले की भांति मजबूत रहे। संविधान की सातवीं अनुसूची में तीनों सूचियां केंद्र, राज्य एवं समवर्ती सूची पर असर न हो।

इस व्यवस्था के लिए करना होगा संविधान संशोधन :

देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में कम से कम पांच अनुच्छेदों में संशोधन करना पड़ेगा। पहले तो राजनीतिक दलों की एक राय नहीं बन पा रही, मान लीजिए भविष्य में कोई एक राय उभरती भी है तो संविधान में बड़े संशाेधन करने होंगे। इन संशोधनों में लोकसभा का कार्यकाल तय करने वाले और राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल तय करने वाले अनुच्छेद 83 में संशोधन करना होगा। इसके अलावा संसदीय सत्र को स्थगित करने और खत्म करने वाले अनुच्छेद 85, विधानसभा का कार्यकाल निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 172 और विधानसभा सत्र को स्थगित और खत्म करने वाले अनुच्छेद 174 में संशोधन करना होगा। राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रावधान वाले अनुच्छेद 356 में भी संशोधन करना होगा।

चुनावी कार्यक्रम में किसी भी तरह के संशोधन के लिए दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत होना भी जरूरी है। 1951-52, 1957, 1962 और 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ होते थे लेकिन 1967 में राजनीतिक उथल-पुथल के बाद हालात काफी बदल गए। राज्यों में ऐसा घमासान मचा कि राज्यों में अस्थिरता आने लगी। तब से अलग-अलग चुनाव होने लगे। सरकार कहती है कि एक साथ चुनाव कराने से देश पर पड़ने वाला आर्थिक बोझ कम होगा, बार-बार आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी। देश में राज्यों के चुनाव कहीं न कहीं होते रहते हैं और बार-बार चुनाव आचार संहिता लागू करनी पड़ती है। इससे विकास अवरुद्ध होता है। राजनीतिक दलों के खर्च पर भी नियंत्रण रहेगा, जिससे चुनावों में कालाधन खपाने जैसी समस्या भी कम होगी। यह तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन कुछ प्रश्न अभी तक निरुत्तर हैं। जैसे किसी राज्य में सरकार कुछ समय चलने के बाद कुछ कारणों से गिर जाती है तो फिर वहां क्या चुनावों तक राष्ट्रपति शासन रहेगा? सरकारों के गिरने पर कोई वै​कल्पिक व्यवस्था न हो पाने से वहां क्या चुनाव कराए जाएंगे? क्या राज्यों के लोकतंत्र को लम्बे काल तक राष्ट्रपति शासन के अधीन रखा जा सकता है। यह भी देखना होगा कि क्या चुनाव आयोग के पास एक साथ चुनाव कराने का पूरा तंत्र है? ईवीएम और वीवी पैट मशीनों की व्यवस्था के लिए चुनाव आयोग को दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की जरूरत होगी। एक मशीन का कार्यकाल केवल 15 वर्ष है। यानी एक मशीन तीन या चार चुनाव करा पाएगी। इन्हें रीप्लेस करना महंगा पड़ेगा। एक साथ चुनाव कराना संभव है या असंभव, इस मुद्दे पर भी विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह विचार व्याव​हारिक नहीं, क्योंकि वर्तमान में राजनीति विद्रूपताओं का शिकार हो चुकी है।

 

धन्यवाद आप पढ़ रहे थे आदर्श कुमार की रिपोर्ट अगर आपको यह रिपोर्ट पसंद आयी हो तो लाइक करें ,शेयर करें और कमेंट भी करें